Monday, May 4, 2009

पत्रकारिता से ही समाजसेवा की आशा क्यों?

लोग बाग भले ही यह कहते रहें कि पत्रकारिता एक मिशन है जो समाज सेवा के लिए है परंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। जमाने चले गए जब पत्रकारिता को मिशन कहा जाता था। उस वक्त अखबार निकालने के लिए न तो करोड़ों रुपये खर्चने पड़ते थे और न ही उस दौर में पत्रकारिता एक इंडस्ट्री ही थी। अपनी आवाज लोगों तक पहुंचाने के लिए अखबार छापे जाते थे और ये अखबार समाज की कुरीतियों को समाने लाकर इन कुरीतियों और असमानताओं के खिलाफ आवाज बुलंद किया करते थे। न तो उस वक्त महंगी मशीनें थीं और न ही इतना खर्च। पर बदलते वक्त ने अखबार व्यवसाय को एक बड़े उद्योग का दर्जा दे दिया। अखबारों के बीच होने वाली गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने अखबारों के रूप और स्वरूप दोनों को ही बदल दिया। कंप्यूटर इंटरनेट सर्वर जैसी चीजें अखबारों के वजूद के लिए जरूरी हो गई। अखबारों में काम करने वालों मीडियाकर्मियों के वेतन में भारी-भरकम इजाफा हो चुका है।
आज से दस बीस साल पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि हिंदी अखबारों के संपादकों का वेतन एक या डेढ़ लाख रुपये महीने तक हो जाएगा पर आज है। यहां तक कि मझोले शहरों से निकलने वाले अखबारों के संपादकों को तीस से चालीस हजार रुपया वेतन मिल रहा है। पृष्ठों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और इसके साथ-साथ अपना प्रोडक्ट बेचने के लिए उपहारों की बरसात करनी पड़ती है। हाकरों को गिफ्ट देने पड़ते हैं। उनके लिए पार्टियां आयोजित की जाती है। यह सब कौन कर सकता है? यह सब वही कर सकता है जिसमें अखबार चलाने का दम हो और जो पैसा फूंक तमाशा देख सकने की हिम्मत रखता हो। बीस चौबीस अट्ठाइस पृष्ठ के अखबारों की लागत कितनी होती है? लगभग सात से आठ रुपये। उस पर ये अखबार बिकते हैं दो रुपये में। उसमें भी एक रुपया हाकर और एजेंट के हिस्से में चला जाता है। सात रुपये की लागत वाला अखबार रिटर्न के रूप में एक रुपया जब लौटाएगा तो अखबार मालिक कैसे इस घाटे को पूरा करेगा, यह एक यक्ष प्रश्न है।
विज्ञापनों का सहारा जो कभी अखबारों तक सीमित था, उसका बड़ा हिस्सा अब इलेक्ट्रानिक मीडिया ने हथिया लिया है। ऐसी परिस्थिति में यदि किसी अखबार या अखबार मालिक से समाज सेवा की आशा की जाए तो यह अपने आप को भुलावे में रखने वाली बात है। ऐसा नहीं है कि अखबार आज पूरी तरह से किसी के गुलाम हो गए हैं पर उनकी भी अपनी मजबूरी है। यदि अखबार चलाना है तो कहीं न कहीं समझौते करने पड़ेंगे। सरकारी विज्ञापन अखबारों की आय का एक बड़ा साधन है पर अब सरकारों ने इससे अपने हाथ खींच लिए हैं। इतनी कड़ी शर्त लगा दी गई है कि कमजोर और छोटे-मोटे अखबार तो दो चार छह महीने में ही दम तोड़ देते हैं। जो बड़े होते हैं वो अपने दम पर अखबार निकालने में सक्षम हैं। वे अखबार चलाते हैं पर इनको भी इसमें कितना घाटा होता है, यह आम आदमी की समझ में नहीं आता।
सवाल इस बात का है कि जब कोई भी व्यवसाय समाज सेवा के लिए नहीं चलाया जा रहा है तो सिर्फ पत्रकारिता से ही क्यों समाज सेवा की आशा की जाए। करोड़ों रुपये फूंक कर केवल समाज सेवा करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। बावजूद इसके इतना सब होने के बाद भी पत्रकारिता कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में समाज की सेवा कर ही रही है। चाहे वह मजलूमों को न्याय दिलाने की बात हो, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई हो, आम आदमी की आवाज बुलंद करने की बात हो या फिर विसंगतियों को सामने लाने की बात, अपने तईं जितनी कोशिश पत्रकारिता और पत्रकार या अखबारों के मालिक कर रहे हैं, उसे संतोषजनक माना जा सकता है परंतु पत्रकारिता से केवल समाज सेवा की आशा करना न्यायसंगत नहीं है।

2 comments:

  1. चुन्नू भैया का ब्लागर बनने का प्रयास आखिरकार सफल हो ही गया.ब्लाग जगत में आपका स्वागत है.अब कोई कुछ भी कहने से रोकेगा नहीं.आप तो शुरू हो जाओ.......
    अजय

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