Monday, May 25, 2009

सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया

लो देखो अब हर वो राजनेता और राजनीतिक दल अपने अपने दलों के नेताओं के साथ मुंह लटका कर अपनी हार की समीक्षा करने में लग गया है। न उन्हें खाने की चिन्ता है न पीने की। वे न तो किसी से मिल रहे है और न ही उनसे कोई मिल पा रहा है। एक कमरे में बंद ये नेता गलबहियां डालकर जार जार आंसू बहाते हुये अपने हार जाने का गम गलत कर रहे हैं कोई कह रहा है कि जनता ने हमें धोखा दे दिया तो कोई कह रहा है कि हमने जनता से दूरी बना ली थी जिसके कारण हमें ये दिन देखना पड रहा है। चाहे वे लेफट वाले हों या फिर लालू जी या फिर रामविलास पासवान और या फिर अपने पीएम इन वेटिंग आडवानी जी। हरेक का चेहरा लटका हुआ है और चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई है। लालू जी कह रहे हैं कि अब वे एक साल दिल्ली की राजनीति नहीं करेंगे। अरे भैया दिल्ली की राजनीति तो तब करोगे न जब दिल्ली में कोई पोस्ट होगी। बिहार और दिल्ली दोनो जगह की पोस्टें तो आप अपने करमों से गंवा बैठे हो बिहार में जिस कुरसी पर बरसों तक आपने और आपकी पत्नी ने राज किया उस कुरसी पर अब नीतीश कुमार कब्जा जमाये बैठे हैं इधर दिल्ली में ‘‘लेडीज फस्र्ट‘‘ के नाते ममता ने आपकी खाली कुरसी पर अपना रूमाल रख कर उसको एंगेज कर दिया है अब बेचारे लालू जाये तो जायें कहां? यही हाल अपने लेफट के नेताओं का है हार की समीक्षा में जुटे है भाई लोग। एक कह रहा है हमें जनता के पास जाना होगा उसके और हमारे बीच काफी दूरी बढ गई है। अब ये बात समझ में आ रही है जब जनता ने बत्ती दे दी वरना पहले तो अपने आप को ‘‘जोधा‘‘ समझने लगे थे ये लोग। जब चाहे सरकार को अडी पटकते रहते थे कि यदि हमारी बात नही मानी तो हम सरकार की सारी की सारी कुरसियां गिरा देंगे पर हुआ उलटा वे तो किसी की कुरसी नही खिसका पाये उलटे उनकी ही कुरसियां खिसक गई अब इन कुरसियों के ‘‘हत्थे‘‘ पकड कर वे रो रो कर हलाकान हो रहे हैं यही हाल अपने नेता पासवान जी का है कभी जीतने का ‘‘रिकार्ड‘‘ बनाया था भाई साहब ने पर जनता ने ऐसी पटखनी दी कि अपनी पार्टी तो छोडो अपने खुद के ही जीतने के लाले पड गये। हाल ये हो गया है कि दिल्ली आयेगे तो सिर्फ घूमने फिरने के लिये क्योकि अब कोई ‘‘धनी धोरी‘‘ तो बचा नही है उनका दिल्ली में। बहुत ऐश कर लिये थे अब राम धुन भजो और पांच साल तक इंतजार करो कि शायद किस्मत फिर पलटी खा जाये। इन नेताओं को अब सब कुछ याद आ रहा है जैसे फिल्मों में ‘‘फ्लेशबैक ‘‘ में पुरानी बातें दिखाई जाती है वैसा ही फ्लेशबैक इनको भी नजर आ रहा है। अपने अपने मंत्रालय के सामने मूंगफली चबाते हुये ये सोच रहे है कि वो भी क्या दिन थे जब अपन यहां के राजा थे पर आज दरबान भी बिना ‘‘पास‘‘ लिये वहां घुसने नही दे रहा है किसी ने सच ही कहा है समय किसी का नही होता शायद इसी को आधार मानकर किसी गीतकार ने ये गीत लिखा था ‘‘सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया‘‘ यह गाना इन पर पूरी तरह सटीक बैठता है।

Saturday, May 23, 2009

कोर्ट का फैसला है मानना तो होगा ही

देश में सबसे बडी अदालत ही होती है। अदालतें सरकारी फैसलों को भी बदलने का दम रखती है उस पर देश का सुप्रीम कोर्ट तो सबसे बडी ताकत रखता है। उसके न्यायाधीश जो निर्णय देते हैं वो कानून बन जाता है इसलिये यह बताया जाता है कि कोर्ट के फैसलों को सर माथे पर रखना चाहिये। बडे बडे लोग जब कोर्ट से मुकदमा हार जाते है उसके बाद भी ये ही कहते हैं कि उन्हें न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है अब जिस न्यायालय की इतनी ताकत हो यदि वो कह रहा हो कि बीबी जैसा कहे वैसा ही करो तो जिन्दगी आराम से गुजरेगी तो कौन ऐसा बेबकूफ होगा जो जिन्दगी आराम और शांती से गुजारना न चाहता हो। वैसे भी कोर्ट ने तो यह बात काफी लेट कही है यहां तो हर आदमी पहले से ही बीबी की हां में हां मिला रहा है और ये जरूरी भी है क्योंकि हरशादी शुदा मर्द को मालूम है कि बीबी से पंगा लेना अपने आप को संकट में डालना ही है क्योकि जो लोग बीबी की बात नही मानते हैं उन्हे पत्नी पीडित संघ बनाना पड जाता है जहां तक अपने को मालूम है भारतीय संस्कार में नारी को सबसे बडा दर्जा दिया गया है दुर्गा जी ने बडे बडे राक्षसों का संहार कर दिया था। महाकाली का तो रूप ही ऐसा होता है कि आदमी मारे भय के कांप जाता है उनके तेज के सामने किसी का तेज नही ठहरता। देश के सबसे बडे कोर्ट ने ये सुझाव बडे अनुभव के बाद दिया है ऐसा लगता है और तो और उन्होंने तो वकीलों को ये सलाह भी दे दी है कि अपनी कमाई ले जाकर सीधे बीबी के हाथों में रख दो अपना मानना तो ये है कि अस्सी परसेंट मर्द अपनी तनख्वाह अपनी बीबी के हाथों में ही पहले से ही रखते आ रहे है क्योकि कहते है न पैसा सारी विवादों की जड होता है। पैसा भाई भाई बाप बेटे में जब झगडा करवा सकता है तो मियां और बीबी की तो बिसात ही क्या है सुप्रीम कोर्ट के इस सुझाव के बाद लाखों लोगों ने अपनी अपनी बीबियों को ही अपना खुदा मान लिया है क्योकि वे भी जानते है कि कोर्ट जो कुछ भी कहता है पूरें तथ्यों के आधार पर ही कहता है जहां तक बीबियों को सवाल है तो इसमें तो कोई शक नही है कि यदि बीबी प्रसन्न हो तो आपके सारे गुनाह वो माफ कर देती है बस उसको खुश करने की कला आपको आनी चाहिये और ये भी कोई ज्यादा कठिन काम नही है कभी कभार साडी लाकर दे दो। कभी गहने बनवा दो। किसी दिन लम्बी सैर पर चले जाओ। उसकी खूबसूरती की तारीफ कर दो। उसके भाई बहनों को कोई भेंट दे दो। अपने ससुराल की जम कर बडाई कर दो। पडोसन को उसकी तुलना में बदसूरत बतला दो भले ही वो ऐश्वर्या राय ही क्यों न हो। बस इतने से तो गुर है जो बीबी को खुश रखने के लिये पर्याप्त है। इतने में ही तो उसे लगता है कि उसका मर्द कितना अच्छा और उसे जी जान से चाहने वाला है और वो खुश हो जाती है। कहते हैं न पति और पत्नी गाडी के दो पहिये होते हैं अपना ख्याल तो ये है कि हर शादी शुदा मर्द को पिछला पहिया बन जाना चाहिये और बीबी को बना देना चाहिये अगला पहिया। इससे फायदा ये होगा कि जहां जहां अगला पहिया जायेगा पीछे वाले को मजबूरी में उसके पीछे पीछे जाना ही पडेगा और जब वो उसके पीछे पीछे जायेगा तो गाडी के यहां वहां भटकने की गुंजाईश ही खत्म हो जायेगी। कोर्ट ने जो कुछ भी कहा है उसे तो अपन ने पत्थर की लकीर मानकर उस पर अमल भी शुरू कर दिया है क्योंकि कि अपन भी चाहते हैं कि जितने दिनों की जिन्दगी बची है सुख और शांति से गुजर जाये।

Monday, May 18, 2009

लोकसभा चुनाव रिजल्ट और फिल्मी गाने

लो साहब लोकसभा चुनाव का रिजल्ट आ ही गया। सारे ज्योतिषी सारे मीडिया वालों के अनुमान फेल करते हुये कांग्रेस ने अपने आप को ‘‘सुपर पावर‘‘ बना लिया कल तक जो दल कांग्रेस को आंखे दिखा रहे थे वे सारे के सारे याचक की मुद्रा में उसके दरवाजे पर लार टपकाते हुये खडे हैं। जैसे हिन्दी फिल्मों में हर सिचुअशन के लिये फिल्मी गीतकारों ने गाने लिखे हैं वे सारे के सारे गाने इस रिजल्ट के बाद हर दल पर फिट होते हुये दिखाई दे रहे हैं। शायद इन फिल्मी गीतकारों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके द्वारा लिखे गये ये फिल्मी गाने कभी राजनैतिक दलों और नेताओं पर फिट बैठेगे पर आज वो दिन आ ही गया है जब ये गाने इनके लिये सही साबित हो रहे हैं। सबसे पहले कांग्रेस को ही लें अभी तक क्षेत्रीय दलों के बंधन में जकडी कांग्रेस इनके ब्लेकमेल से मुक्त होकर गा रही है ‘‘अब कोई गुलशन न उजडे अब वतन आजाद है‘‘ इधर वाममोर्चा वाले अपने वोटरों के सामने आंसू बहाते हुये गा रहे है ‘‘हम से का भूल हुई जो ये सजा हमको मिली अब तो चारों ही तरफ बंद है सत्ता की गली‘‘ उधर भाजपा वाले कितनी आशा लगाये थे कि वे सबसे बडे दल के रूप में उभर कर सामने आयेगे पर चुनाव के रिजल्ट ने उनको यह गीत गाने के लिये मजबूर कर दिया। ‘‘क्या से क्या हो गया बेवफा तेरे प्यार में चाहा था क्या मिला तेरे प्यार में‘‘ भाजपा के ही पीएम इन वेटिंग अपने आडवानी जी के सामने अब ये ही गीत बचा है कि वे इसे गाये ‘‘तेरी दुनिया से हो के मजबूर चला मैं बहुत दूर बहुत दूर चला‘‘ लालू यादव जो अभी तक राम विलास जी को अपना सब कुछ मानकर कांग्रेस को आंखे तरेर रहे थे अब कांग्रेस के दरवाजे पर खडे होकर गुनगना रहे हैं ‘‘तेरी राहों में खडे है दिल थाम के हाय हम है दीवाने तेरे नाम के‘‘ कभी कभी इस गाने की बजाय ये इस गीत की तान भी वे छेड देतें हैं ‘‘तेरे दर पर आया हूं कुछ करके जाऊँगा झोली भर के जाऊँगा या मर के जाऊँगा ’’ रहा नीतीष कुमार और शरद यादव का तो वे तय नही कर पा रहे है कि वे क्या करें इसलिये दोनो मिलकर कोरस गा रहे है ‘‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं बडी मुश्किल में हूं कि किधर जाऊं ‘‘ अपनी बहन जी मायावती जिस तीसरे चौथे पांचवे छटवे मोर्चे के साथ मिलकर प्रधानमंत्री बनने का ख्वाव संजो रही थी अब सलमा आगा की आवाज में गा रही हैं ‘‘दिल के अरमां आंसंओ में बह गये हम वफा करके भी तनहा रह गये‘‘ उधर मुलायम और अमर के सामने एक ही रास्ता बचा है कि वो कांग्रेस के दरवाजे पर खडे होकर ये गीत गायें ‘‘मुझ को अपने गले लगालो ए मेरे हमराही तुमको क्या बतलाउ मै कि तुमसे कितना प्यार है‘‘ पश्चिम की शेरनी ममता अपनी जीत पर फूली नही समा रही है और इठला इठला कर कांग्रेस के साथ गा रही हैं ‘‘तुम आज मेरे संग हंस लो तुम आज मेरे संग गालो हंसते गाते इस जीवन की उलझी राह संभालों‘‘सबसे बुरा हाल तो अपने रामविलास भैया का है अपने दो चार चेलों के दम पर हर बार मंत्रीमंडल में षमिल होने वाले भाई जी अब चुपचाप अकेले अपने घर की ओर ये गाना गाते हुये जा रहे हैं ‘‘चल अकेला चल अकेला तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला‘‘ इन सबसे इतर मतदाता अपने बाजुओं को फडफडातें हुये गा रहा है ‘‘जो हमसे टकरायेगा चूर चूर हो जायेगा‘‘ बीच बीच में इन पालीटिकल पार्टियों को वो ये गाना भी सुना देता है ‘‘चाहे लाख करो चतुराई करम का लेख मिटे न रे भाई‘‘

Sunday, May 17, 2009

उल्टे चलोगे तो ये तो होगा ही

दुनिया में हर किसी को सीधा ही चलना पडता है जो भी उल्टा चलता है उसे गच्चा खाना ही पडता है माना कि भारत में यातायात लेफट से चलता है पर बाकी काम तो सीधे यानी राइट से ही होते हैं दाहिना हाथ हर अच्छे काम के लिये उपयोग में आता है किसी की पूजा करना है तो दाहिने हाथ से ही होती है प्रसाद दाहिने हाथ में लिया जाता है अधिकांश लोग दाहिने हाथ से लिखते है अपने सारे काम इसी हाथ से ही करते है माथे पर चंदन इसी हाथ से लगाया जाता है यहां तक कि किसी को रहपट भी मारना होता है तो दाहिने ही हाथ का प्रयोग किया जाता है हर शुभ काम में दाहिने हाथ ही प्रयोग होता है बांये हाथ का उपयोग किस काम के लिये किया जाता है यह बतानें की जरूरत नहीं है पर इतना सब कुछ जानने के बाद भी यदि ये कम्युनिस्ट लेफट यानी उल्टी चाल चल रहे थे तो ये तो होना ही था जो उनके साथ हुआ। बडी बडी बातें करते थे अपने करात साहब। जब चाहे बेचारे मनमोहन सिंह को अडी पटकते रहते थे ये मत करो। ये करो। ये किया तो ठीक नही होगा। मानो मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री न हुये घर को छोटा बच्चा हो गये कि हर बात में उसे टोका जाये। माना कि आप कांग्रेस को सपोर्ट कर रहे थे और सपोर्ट भी इसलिये कर रहे थे कि कही भाजपा वाले सत्ता में न आ जाये वरना कांग्रेस तो आपको कभी फूटी आंख नही सुहाती थी भाजपा के डर से कांग्रेस से हाथ मिलाया तो था पर यहां भी वो ही लेफट यानी बांया हाथ मिलाये हुये थे अब बांये हाथ का बंधन कितना मजबूत रहेगा तो परमाणु समझौते का जरा सा धक्का लगा और हाथ छूट गया। आपको लगा था कि कांग्रेस उनका हाथ छूटते ही धारम धार बह जायेगी पर वे नही जानते थे कि कांग्रेस के पंजे को थामने वाले और भी थे और यही हुआ। आपका हाथ छूटते ही कई दूसरे हाथों ने कांग्रेस के पंजे को लपक लिया। इस चुनाव में आपको इस बात का अहसास दिला दिया वोटरों ने कि उल्टे रास्ते चलने वालों का हश्र क्या होता है? जिस पश्चिम बंगाल और केरल के दम पर ये लोग इतराते थे वहां इनकी ऐसी मटटी पलीद हुई कि दिन में तारे नजर आ गये अब कह रहे है कि हम विपझ में बैठेगे हुजूर जब हार गये हो तो विपझ में तो बैठना ही पडेगा कौन सा अहसान कर रहे हो देश वालों पर ये बतला कर कि हम अब विपझ में बैठेगे। विपझ में नही बेठोगे तो और कहां बेठोगे? आप लोगों के लिये कोई भी कुरसी खाली नही बची है रहा सवाल कांग्रेस का तो कल तक वो आप लोगों का मुह ताकती थी अब आप लोगों को उसका मुंह ताकना पडेगा वैसे भी आप लोगों के पाखंड से सारे भारत के लोग परिचित है दुनिया भर से कम्युनिज्म ने विदाई ले ली पर आप अभी भी उसे उसी तरह चिपकाये घूम रहे हो जैसे बंदरिया अपने मरे बच्चे को अपनी छाती से चिपकाये घूमती है पर देख लिया न आप लोगो ने उल्टा चलने का फल। अरे भैया ये तो सोचो कि सडक पर भी जो आदमी चलता है वो जब तक सीधा नही चलेगा तब तक अपने घर कैसे पहुंचेगा पर आप लोग तो उल्टे चल रहे थे इसलिये फिर वही पंहुच गये जहां से शुरू किया था अभी भी वक्त है अपना नाम लेफट से बदल कर राइट कर लो और सीधे रास्ते चलना स्टार्ट कर दो भगवान ने चाहा तो जैसे सबकी इच्छा पूरी होती है आप लोगों की भी इच्छा कभी न कभी पूरी हो ही जायेगी इति शुभम ।

Saturday, May 16, 2009

Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

धरे रह गये न सारे के सारे एक्जिट पोल

ये मीडिया वाले भी पता नही क्यों चुनाव के दौरान एक्जिट पोल करते रहतें है जब मालूम है कि वोटर आजकल बहुत चालू हो गया है वोट किसी को देता है और बताता कुछ और है तो क्यों उस पर भरोसा करके अपने अपने नतीजे टीवी में दिखलातें फिरते हो। अब क्या रह गई आप लोगों की। सारे के सारे नतीजों पर पानी फेर दिया इन वोटरों ने। कोई कह रहा था कि यूपीए को डेढ सौ से एक सौ अस्सी के बीच सीटे मिलेंगी तो कोई एनडीए को पोने दो सौ तक ले जाने की बात कर रहा था पर जब वोट ईवीईम मशीनों से बाहर आये तो सारे एंकरों के चेहरों से हवाईयां उडने लगीं। जो नेता अपनी पार्टी की सरकार बनाने की बात कह रहे थे न जाने कहां दुबक कर बैठ गये। भले ही टीवी वाले अपने आप को बहुत होशियार समझें पर उनको भी अब पता लग गया होगा कि उनसे ज्यादा होशियार इस देश का मतदाता हो गया है। कब किसको सत्ता की कुरसी पर बैठाना है और कब किसको अडी पटकना है ये उससे ज्यादा अच्छी तरह से कोई नही जानता अपने को तो एक बात आज तक समझ में नहीं आई कि जब हर बार इन टीवी वालों का एक्जिट पोल फेल हो जाता है तो ये बार बार उसको क्यों अपनाते हैं अरे भैया ये हिन्दुस्तान है यहां कब क्या हो जाये किसी को नही मालूम। अब क्या कांग्रेस ने ये सोचा होगा कि उसे इतनी सारी सीटें मिल जायेगी पर मिल गई न। बेचारे आडवानी जी कब से पीएम की सीट के रिज़र्वेशन के लिये ऍप्लिकेशन लगाये थे पर उनका रिज़र्वेशन इस बार भी कन्फर्म नही हो पाया और देखते ही देखते गाडी उनकी आंखों के सामने से प्लेटफोर्म छोडकर आगे निकल गई। अब पांच साल तक फिर वेटिंग में रहना पडेगा कहतें है न आदमी सोचता कुछ और है और होता कुछ और है। यदि आदमी जो सोच रहा है वैसा ही होने लगे तो ऊपर वाले की ताकत को कौन मानेगा। इस बार के चुनावों के बाद अब टीवी वालों को शिवाजी महाराज की शपथ ले लेना चाहिये कि चाहे लोकसभा चुनाव हों विधानसभा चुनाव हों नगर निगम के चुनाव हों या फिर पंचायत के। अब वे एक्जिट पोल नही करेंगे क्योकि इन टीवी के रिपोर्टर जिन लोगों से बात करते है वे न कहो वोट ही डालने न जाते हों पर अपने को ये भी मालूम है कि भले ही इनकी बेइज्जती हो गई हो पर ये अपनी आदतों से बाज नही आयेंगे और हमेशा एक्जिट पोल करते ही रहेंगे लगता है इन लोगों के भीतर विक्रमार्क की आत्मा घुस गई है यही कारण है कि वो अपना हठ नही छोडता और जैसे ही चुनाव आता है एक्जिट पोल करने के लिये तत्पर हो जाता है अब भी वक्त है पहचान लो मतदाताओं की फितरत को और मान लो कि वे वे भले ही बिना पढे लिखे हों गरीब हों कमजोर हों पर आप लोगों की पोल खोलने के लिये वे पूरी तरह से सक्षम है समझ गये न।
चिट्ठाजगत

Friday, May 15, 2009

क्यों अपनी ही पोल खोलना चाहते हो

चुनाव क्या आया सारे के सारे नेताओं को विदेशो में जमा काले धन की चिन्ता सताने लगी। अभी तक किसी को इस तरफ ध्यान देने की फुरसत नहीं थी पर चूंकि चुनाव में मतदाताओं को भ्रमित करना एक सबसे बडा फंडा है तो नेताओं ने काले धन का शिगूफा छोड दिया। पहले शरद यादव ने भाषण पेला कि भारत के लाखों करोड रूपये स्विस बैको में जमा है यदि उन्हें वापस बुला लिया जाये तो भारत का हर गरीब लखपति बन सकता है फिर पीएम इन वेटिंग आडवानी जी ने उनके सुर में सुर मिलाया और कह दिया कि यदि उनकी सरकार बनी तो वे सारा का सारा काला धन वापस भारत में ले आयेंगे आडवानी जी की होशियारी काबिले तारीफ है क्योंकि उन्हें भी मालूम है कि सरकार तो उनकी बनना नहीं है और जब तक सरकार नही बनेगी वे काला धन वापस ला नही पायेंगे । कल के दिन कोई पूछेगा तो साफ कह देगे कि हमने तो वादा किया था कि आप लोग हमें जिता दो पर जब आपने हमें जिताया ही नही तो हम कैसे वो पैसा वापस ला सकतें थे यानी न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी अपना सोचना ये है कि आखिर ये नेता क्यों अपनी ही पोल खुलवाने के चक्कर में लगे हैं सबको मालूम है कि नेता बनते ही इंसान नोटों में खेलने लगता है पांच साल पहले जो संपति वो घोषित करता है पांच सालों में ही वो संम्पति दस बीस गुना बढ जाती है। हर नेता करोडो का मालिक हो जाता है अब कोई इनसे पूछे कि हुजूर आप का न तो कोई धंधा है न ही कोई नौकरी फिर पांच सालों में ही आप इतना पैसा कहां से कमा लेते हो? कोई अपनी संम्पति दो करोड बतला रहा है तो किसी के पास पांच करोड है तो कोई पचास करोड का मालिक है अचानक इतना पैसा आता कहां से है क्या नेता बनते ही इन लोगों के बंगलो में नोटों का पेड फलने फूलने लगता है कि देखते ही देखतें उन पेडों से पके आम जैसे नोट टपकने लगतें हैं। अपना ख्याल तो ये है कि इन नेताओं को विदेशो में जमा भारत के पैसों की चिन्ता छोडकर अपने ही देश में पल रहे काले धन की चिन्ता करना चाहिये। इधर कौन सा माल कम है देखते ही देखते फटेहाल नेता सत्ता में आते ही करोडपति बन जाता है गाडी आ जाती है बंगले बन जातें है पर कोई चूं नहीं करता कोई किसी के खिलाफ नही बोलता क्योंकि हर कोई हमाम में नंगा है। एक बात और भी है कि यदि आदमी पैसे न कमाये तो करे भी तो क्या करे। आजकल नौकरियां मिलती नही है धंधे में पूंजी की जरूरत पडती है ऐसे में अपने बाल बच्चों के लिये यदि कोई चार पैसे बचाकर विदेशी बैंको में जमा करा भी देता है तो इसमें बुराई भी क्या है हर इंसान को अपनी और अपने बाल बच्चों की चिन्ता होती है वो भी सोचता है कि कल उसके मरने के बाद उसका बेटा उसे गाली न दे ये न कहे कि साला बाप मर तो गया पर मेरे लिये कुछ नहीं कर गया। यही सोचकर लोग बाग सारे दो नंबर के धंधे करते है कि कम से कम दो पीढी के लिये तो व्यवस्था कर ही जायें वैसे कोशिश तो उनकी पूरी सात पीढी की रहती है फिर भी दो तीन पीढियों के लिये तो वे सब कुछ कर ही जाते है अपना मानना तो ये है कि विदेशों से काला धन वापस लाने की ये सारी बातें जनता को बेबकूफ बनाने की बाते हैं जो लोग इस बात की मांग कर रहे है वे भी तो सत्ता में रहे हैं यदि देश के पैसों की इतनी ही चिन्ता थी तो उस वक्त क्यों पैसा वापस नहीं बुलवा लिया। इन सब बातों में कुछ नही रखा है इसलिये हर आदमी चाहे वो नेता हो अफसर हो व्यापारी हो या फिर और कोई एक ही दोहे पर भरोसा करता है नोट नाम की लूट है लूट सके तो लूट अंत काल पछतायेगा जब कुरसी जायेगी छूट।

Thursday, May 7, 2009

बाबाजी ये लोकतंत्र है

योग गुरू बाबा रामदेव इन दिनों देष के नेताओं से भारी खफा है उनका कहना है कि जो लोग बडी बडी परीक्षायें पास करके आते है उन्हं अंगूठा छाप मूर्ख और बेईमान नेताओं के नीचे काम करना पडता है इससे देष का नुकसान हो रहा है और देष गर्त में जा रहा है। बाबाजी ने ये भी कहा है कि चुनाव रिजल्ट आने के बाद वे एक बहुत बडा आन्दोलन खडा करने वाले हैं। बाबा रामदेव का राजनेताओं से अचानक मोहभंग क्यों हो गया यह बात अपने समझ में नही आई। अभी तक तो बाबाजी और देष के नेताओं के बीच अच्छी खासी दोस्ती चल रही थी। वे जिस प्रदेष में जाते थे वहां के नेता बाबाजी के योग षिविर में षिरकत करते थे। योग संस्थान चलाने के लिये जमीनें देने की बात करते थे पर अचानक क्या हुआ कि ये नेता उन्हं मूर्ख और बेईमान दिखाई देने लगे। वैसे भी बाबाजी ये लोकतंत्र है यहां जो जनता के वोटों से जीत कर आता है वो राज करता है चाहे वो अंगूठा छाप हो या फिर उंगली छाप। जब देष की रीति नीति ही ऐसी है तो उसमें हम और आप क्या कर सकते हैं। जिस देष में फूलन देवी को जनता जिता देती है उस देष में यदि कोई मूर्ख राज कर भी रहा है तो उसमें उसका दोष थोडे ही न है और फिर वो काहे का मूर्ख। बिना पढे लिखे यदि वो राज कर रहा है तो उससे बडा बुद्धिमान तो अपनी नजर में और कोई हो ही नही सकता वरना बडी बडी डिग्रियां लेकर आदमी दस हजार की नौकरी के लिये अपनी ऐडियां रगडता रहता है पर उसे कोई घास भी नही डालता पर वो बिना पढा लिखा एक झटके में नेता बनकर सबसे उपर बैठकर राज करनें लगता है। रहा बेईमानी का सवाल तो आज की तारीख में तो अपने हिसाब से ईमानदार केवल वो ही बचा है जिसे या तो बेईमानी करने का मौका नहीं मिल पाया है या फिर वो डर के मारे बेईमानी नही कर पा रहा है। दूसरी बात आजकल ईमानदार की कदर भी कौन कर रहा है जिन्दगी भर जो ईमानदारी से अपना काम करता है उसका बुढापा किस कष्ट में कटता है ये सब जानते हैं फिर जब चारों तरफ ही बेईमानी की बहार हो तो जो बेईमानी न करे उससे ज्यादा मूर्ख तो अपनी नजर में दूसरा कोई और हो ही नहीं सकता। आपको तो मालूम ही होगा कि जिस चुनाव आयुक्त षेषन ने चुनाव में सुधारों के लिये क्रान्ति ला दी थी जब वे बेचारे चुनाव में खडे हुये तो अपनी जमानत भी उन्हें बचाना कठिन हो गया था ऐसे में कौन होगा जो ईमानदारी के बारे में सोचेगा? बाबाजी आप तो ज्ञानी है ये कलियुग है और कलियुग में क्या होता है इसका अध्ययन तो आपने भी किया होगा। बरसों पहले एक फिल्म आई थी गोपी उसमें एक गाना था हे रामचंद्र कह गये सिया से ऐसा कलियुग आयेगा हंस चुगेगा दाना चुनगा कौआ मोती खायेगा। जब उस गीतकार को कई बरस पहले कलियुग के बारे में परी इन्फारमेषन मिल गई थी तब आप तो विकट ज्ञानी कहे जाते हो इस जानकारी से कैसे वंचित रह गये? अपना तो सुझाव है बाबाजी आप तो अपने योग पर ध्यान दो बेहतरीन दुकान चल रही है लोग जोर जोर से सांस ले रहे है और निकाल रहे हैं। इंटरनेषनल लेबल पर आपकी जयजयकार हो रही है देष विदेष की यात्राओं का मौका मिल रहा है और आपको क्या चाहिये अच्छा खासा आश्रम चल रहा है दवाईयां बिक रही है खूबसूरत अभिनेत्रियां आपके चारों ओर अपनी काया को छरहरा और सेक्सी बनाये रखाने के लिये कपालभाति प्रणायाम अनुलोम विलोम कर रही है अब आपको इस उमर में और क्या चाहिये? वैसे अपना एक सुझाव और भी है कि इन नेताओं से पंगा न लेना ये भले ही आपकी निगाह में अंगूठा छाप हों मूर्ख हों पर अडी पटकने वाले से कैसे निबटा जाता है ये वे अच्छी तरह से जानते हैं एक बार मैडम करात ने जब अडी पटक दी थी तब कितने प्राब्लम फेस किये थे आपने। लगता है भूल गये है आप। इसलिये आप तो अपनी दुकान चलाओ और उन्हें अपनी चलानें दो रही जनता की बात तो फुरसत है किसको रोने की दौरे बहार में इस गजल को याद कर लो

Wednesday, May 6, 2009

आशा से तो आसमान भी टंगा है

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अच्छी बात कही कि उन्हें इस बात की पूरी आशा है कि जब सरकार बनाने का वक्त आयेगा तब वाम मोर्चा कांग्रेस का समर्थन कर एक बार फिर से उसे सत्ता की कुरसी तक पहुंचा देगा। लगे हाथों उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीष कुमार की तारीफ में भी कसीदे पढ डाले उन्हं इस बात की भी आशा होगी कि हो सकता है अपनी तारीफ से गदगद हो गये नीतीष कुमार भी कांग्रेस की गोद में जा गिरेंगे। आशावान होना कोई गलत बात नहीं है बडे बडे चिन्तक और ज्ञानी हमेशा अपने प्रवचनों में यही कहते है कि आशावान बने रहो नेगेटिव मत सोचो बी पाजिटिव। लगता है इनका असर अपने राहुल भैया पर कुछ ज्यादा ही हो गया है तभी तो वे उन लोगो से समर्थन की आशा कर रहें है जिन्होंने बीच मझधार में उनकी पार्टी का साथ छोड दिया था पर अपन को राहुल बाबा की दूरंदेशी पसंद आई वैसे भी जिनसे समर्थन की आशा राहुल जी कर रहे है उनकी कथनी और करनी में कितना अंतर है ये तो देश का बच्चा बच्चा जान गया है। वे आज कुछ कहते है कल कुछ फिर परसों फिर कोई नई बात करते हँ। जिसका दिमाग और मन ही स्थिर न हो वो तो कभी भी कुछ कह और कर सकता है शायद यही राहुल बाबा ने भी सोचा होगा कि जब सरकार बनाने की बात आयेगी हो सकता है उस वक्त इन वामपंथियो का दिल और दिमाग कांग्रेस के समर्थन में काम करने लगे और वे उन्हं समर्थन दे दें। वैसे भी भारत में राजनीति की जो बयार बह रही है उसमें कुछ भी हो सकता है। हो सकता है भाजपा कांग्रेस मिलकर सरकार बना ले। ये भी हो सकता है लालू और नीतीष कुमार मोटर साइकल में बैठकर ये गाना गाते दिखाई दें ये दोस्ती हम नही छोडेगें। हो सकता है माया और मुलायम एक दूसरे के लिये जान की बाजी लगा देने की बात कहने लगें। ये भी संभव है कि मनमोहन सिंह आडवानी जी को प्रधानमंत्री पद के लिये खुद ही प्रपोज कर दें। ये भी हो सकता है कि सुषमा स्वराज और सोनिया गांधी जबरदस्त सहेलियां बन जायें। न कहो ये भी हो जाये कि वाम मोर्चा संघ में षमिल हो जाये यानी कुल मिलाकर भारत की राजनीति में कुछ भी हो सकता है और जब यहां कुछ भी हो सकता है तो राहुल बाबा ने यदि वाममोर्चे के समर्थन की आषा यदि कर ली तो क्या गलत हो गया। वैसे भी युद्ध और प्यार में सब जायज है वाली कहावत में अब राजनीति भी जुड गई है इसलिये राहुल बाबा के बयान को गंभीरता से लिया जा सकता है और फिर आषा करने की छूट तो सबको है। एक भिखारी भी इस बात की आषा कर सकता है कि एक न एक दिन वो भी अंबानी जैसा अमीर हो जायेगा इस पर तो किसी की रोेक है नहीं। हर बाप अपने बेटे से आषा करता है कि वो पढ लिखकर उसका नाम रोषन करेगा ये बात अलग है कि उसके चक्क्र में बाप को थाने और कोर्ट कचहरी के चक्क्र लगाने पड जाते है अपना मानना तो ये है कि राहुल भाई साहब के बयान पर वामपंथियों को कोई कमेंन्टस नही करने चाहिये थे क्योकि कब क्या हो जाये ये कोई नही सिर्फ उपर वाला ही जानता है

Tuesday, May 5, 2009

लो अब टाइगर भी फरार होने लगे

अभी तक तो हमने ये सुना था कि पुलिस थानों से चोर फरार हो जाते हैं जेल से कैदी भाग जाते हैं चुनावों के बाद जनता के सामने से नेता फरार हो जाते हैं जेबकतरे जेब काट कर गायब हो जाते हैं नल से पानी गायब हो जाता है पर ये तो पहली बार ही सुना है कि जंगल से टाइगर फरार हो गया लोग भले की इस बात पर भरोसा करें या न करें पर भारत सरकार की ओर से भेजे गये जांच दल ने पन्ना के राष्टीय उद्यान की जब खोज खबर ली तो पता चला कि वहां तो एक भी टाइगर मौजूद नही है जबकि ये उद्यान खुला ही टाईगरों के लिये था अब वहां जो लोग टाइगरों की देखरेख के लिये तैनात थे टार्च लेकर टाइगर की खोज में निकल पडे हैं पर टाइगर है तो उनके साथ ऐसी लुकाछिपी का खेल खेल रहा है कि वे सारे के सारे लोग चाहकर भी उसे तो दूर उसके पंजे के निषान भी नही ढूढ पा रहे हैं। अपनें को तो समझ में ही नही आता कि आखिर टाइगर ऐसा कहां गायब हो गया। माना कि उसे पन्नज्ञ रास नही आ रहा था तो कह देता कि भैया हमारा किसी दूसरे उद्यान में तबादला करवा दो यहां हमारा मन नही लगता पर बिना बताये अचानक गायब हो जाना पता नहीं कितनांे की नौकरी पर बन आयेगी। सारे के सारे लोग हल्लज्ञ मचाने में लग गये है कि पता नही पन्न के उद्याान का एकमात्र टाईगर न जाने कहां और कैसी हालत में होगा। सारा का सारा वन विभाग का अमला रात दिन उसे खोजने में लगा हुआ है पर उसका कहीं पता नही लग रहा है ऐसा लगता है कि उसे या तो जमीन निगल गई या आसमान खा गया है दरअसल इस टाईगर की खोज इसलिये भी जरूरी हो गई है क्योकिं बहुत कम टाईगर बचे है अब पूरे देष में और क्यों न बचे जब लडैयों का जमाना आ गया हो तो टाईगर दुनिया में रह कर करे भी तो क्या करंे? इधर अखबार वाले हल्ला बोल रहे है तो उधर टीवी वाले रोजाना ही पुराने वीडियों के सहारे सरकार और अफसरों को हलाकान किये हुये है कोई जबाब देने की पोजीषन में नही है अपना तो मत ये है कि अब खोजबीन छोडो और अखबारों टी वी में एक विज्ञापन दे दो जो कुछ इस तरह का हो प्रिय टाईगर जी आप जब से गये है तब से हमारा खाना पीना सब हराम है चारों तरफ से बत्ती पड रही है आप अचानक कहां चले गये हो यदि कोई नाराजी थी तो हमसे बतलाते बडी बडी समस्यायंे जब मिल बैठकर बातचीत के जरिये हल हो जाती है तो आपके प्राबलम कौन सी बडी बात थे पर आपने मौका ही नही दिया हमें बिना बताये गायब हो गये आपके विछोह में वन विभाग का सारा का सारा अमला जार जार आंसू बहा रहा है आप जहां भी हो वापस लौट आओ आपसे कोई कुछ नही कहेगा और न ही ये पूछेगा कि इतने दिनों आपने कहां काटे आपके मनोरंजन के लिये हम लोग एक नही दो दो टाईग्रेस दूसरे उद्यानों से बुलवा रहे है अब आपको किसी प्रकार की तकलीफ नही होगी एक बार हमें माफ कर दे हमारी नौकरी बचा ले हम भी बाल बच्च्ेदार लोग है फिर कभी ऐसी गलती नहीं होगी आपकी राह तक रहा वन विभाग का अमला

Monday, May 4, 2009

पत्रकारिता से ही समाजसेवा की आशा क्यों?

लोग बाग भले ही यह कहते रहें कि पत्रकारिता एक मिशन है जो समाज सेवा के लिए है परंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। जमाने चले गए जब पत्रकारिता को मिशन कहा जाता था। उस वक्त अखबार निकालने के लिए न तो करोड़ों रुपये खर्चने पड़ते थे और न ही उस दौर में पत्रकारिता एक इंडस्ट्री ही थी। अपनी आवाज लोगों तक पहुंचाने के लिए अखबार छापे जाते थे और ये अखबार समाज की कुरीतियों को समाने लाकर इन कुरीतियों और असमानताओं के खिलाफ आवाज बुलंद किया करते थे। न तो उस वक्त महंगी मशीनें थीं और न ही इतना खर्च। पर बदलते वक्त ने अखबार व्यवसाय को एक बड़े उद्योग का दर्जा दे दिया। अखबारों के बीच होने वाली गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने अखबारों के रूप और स्वरूप दोनों को ही बदल दिया। कंप्यूटर इंटरनेट सर्वर जैसी चीजें अखबारों के वजूद के लिए जरूरी हो गई। अखबारों में काम करने वालों मीडियाकर्मियों के वेतन में भारी-भरकम इजाफा हो चुका है।
आज से दस बीस साल पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि हिंदी अखबारों के संपादकों का वेतन एक या डेढ़ लाख रुपये महीने तक हो जाएगा पर आज है। यहां तक कि मझोले शहरों से निकलने वाले अखबारों के संपादकों को तीस से चालीस हजार रुपया वेतन मिल रहा है। पृष्ठों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और इसके साथ-साथ अपना प्रोडक्ट बेचने के लिए उपहारों की बरसात करनी पड़ती है। हाकरों को गिफ्ट देने पड़ते हैं। उनके लिए पार्टियां आयोजित की जाती है। यह सब कौन कर सकता है? यह सब वही कर सकता है जिसमें अखबार चलाने का दम हो और जो पैसा फूंक तमाशा देख सकने की हिम्मत रखता हो। बीस चौबीस अट्ठाइस पृष्ठ के अखबारों की लागत कितनी होती है? लगभग सात से आठ रुपये। उस पर ये अखबार बिकते हैं दो रुपये में। उसमें भी एक रुपया हाकर और एजेंट के हिस्से में चला जाता है। सात रुपये की लागत वाला अखबार रिटर्न के रूप में एक रुपया जब लौटाएगा तो अखबार मालिक कैसे इस घाटे को पूरा करेगा, यह एक यक्ष प्रश्न है।
विज्ञापनों का सहारा जो कभी अखबारों तक सीमित था, उसका बड़ा हिस्सा अब इलेक्ट्रानिक मीडिया ने हथिया लिया है। ऐसी परिस्थिति में यदि किसी अखबार या अखबार मालिक से समाज सेवा की आशा की जाए तो यह अपने आप को भुलावे में रखने वाली बात है। ऐसा नहीं है कि अखबार आज पूरी तरह से किसी के गुलाम हो गए हैं पर उनकी भी अपनी मजबूरी है। यदि अखबार चलाना है तो कहीं न कहीं समझौते करने पड़ेंगे। सरकारी विज्ञापन अखबारों की आय का एक बड़ा साधन है पर अब सरकारों ने इससे अपने हाथ खींच लिए हैं। इतनी कड़ी शर्त लगा दी गई है कि कमजोर और छोटे-मोटे अखबार तो दो चार छह महीने में ही दम तोड़ देते हैं। जो बड़े होते हैं वो अपने दम पर अखबार निकालने में सक्षम हैं। वे अखबार चलाते हैं पर इनको भी इसमें कितना घाटा होता है, यह आम आदमी की समझ में नहीं आता।
सवाल इस बात का है कि जब कोई भी व्यवसाय समाज सेवा के लिए नहीं चलाया जा रहा है तो सिर्फ पत्रकारिता से ही क्यों समाज सेवा की आशा की जाए। करोड़ों रुपये फूंक कर केवल समाज सेवा करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। बावजूद इसके इतना सब होने के बाद भी पत्रकारिता कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में समाज की सेवा कर ही रही है। चाहे वह मजलूमों को न्याय दिलाने की बात हो, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई हो, आम आदमी की आवाज बुलंद करने की बात हो या फिर विसंगतियों को सामने लाने की बात, अपने तईं जितनी कोशिश पत्रकारिता और पत्रकार या अखबारों के मालिक कर रहे हैं, उसे संतोषजनक माना जा सकता है परंतु पत्रकारिता से केवल समाज सेवा की आशा करना न्यायसंगत नहीं है।